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Showing posts from June, 2017

मैं, तुम और बरसात

लो आया गया तुम्हारा मौसम.. इसी का इन्तेज़ार था न तुम्हें ? कड़कड़ाती बिजलियां, गरज़ते बादल, और ये फुहार.... कितना शोर मचाती हो तुम, इस बारिश में बच्चों के साथ जैसे आ जाती है कोई बच्ची, तुम्हारे भी भीतर, कहीं किसी दुनिया से। उछलती हो, कूदती हो, नाचती हो और नचाती हो छत पे बह रहे उस बरसाती पानी को भी अपने ख़ूबसूरत पैरों से क्या छपाक की आवाज़ आती है, जब पानी उछलता है और बिखर जाता है दूर तक उन छोटी छोटी मुस्कुराती बूंदों में। सच, कितनी ख़ुश हो जाती हो तुम... मैं जानता हूँ तुम आज भी खेल रही होगी नाच रही होगी, कहीं किसी छत पे, किसी गली में बच्चों के साथ पानी उछाल रही होगी भीग रही होगी... और मैं...? मैं भी भीग रहा हूँ.., तुम्हें लिए ख़ुद में, कुछ कुछ तुम्हारी तरह और ढूंढ रहा हूँ, वो छत, वो गली, वो शहर जहाँ तुम नाच रही होगी।

बातें हड़ताल पर हैं

बातें हड़ताल पर हैं.. और वो भी इस क़दर कि, नहीं निकलने देना चाहती एक भी शब्द  इस होठ की दहलीज से... कोई इन शब्दों तक ना पहुँच सके इसलिए उन्होंने ख़ुद से ही खोद रखे हैं बहुत सारे गड्ढे.... वो गड्ढे जो उगल रहे हैं आग इन दिनों, पूरे मुंह की सीमाओं से... शब्द बहुत हैं,  निकलना भी चाहते हैं लेकिन जैसे ही करता है कोई शब्द कोशिश आज़ादी की... वो उकसा देती हैं इन गड्ढों को,  और गड्ढों की आग में झुलसा वो शब्द,  ख़ुद ही क़ैद हो जाता है जैसे, झुलसती राह की तकलीफ़ के  उस साये में... बातें मौन चाहती हैं  इस वक्त बस चुप रहना चाहती हैं इक ऐसा मौन...जिसमें छुपा है इंतज़ार... इंतजार तुम्हारे आने का... इस मौन व्रत को रखे हुए ये बातें  अब थक रही हैं.. टूट रही हैं... झुलस रही हैं ख़ुद की ही आग में... तो सुनो... तुम लौट आओ ना... तुम आओगी तो बातें जी उठेंगी।