मैं, तुम और बरसात
लो आया गया तुम्हारा मौसम.. इसी का इन्तेज़ार था न तुम्हें ? कड़कड़ाती बिजलियां, गरज़ते बादल, और ये फुहार.... कितना शोर मचाती हो तुम, इस बारिश में बच्चों के साथ जैसे आ जाती है कोई बच्ची, तुम्हारे भी भीतर, कहीं किसी दुनिया से। उछलती हो, कूदती हो, नाचती हो और नचाती हो छत पे बह रहे उस बरसाती पानी को भी अपने ख़ूबसूरत पैरों से क्या छपाक की आवाज़ आती है, जब पानी उछलता है और बिखर जाता है दूर तक उन छोटी छोटी मुस्कुराती बूंदों में। सच, कितनी ख़ुश हो जाती हो तुम... मैं जानता हूँ तुम आज भी खेल रही होगी नाच रही होगी, कहीं किसी छत पे, किसी गली में बच्चों के साथ पानी उछाल रही होगी भीग रही होगी... और मैं...? मैं भी भीग रहा हूँ.., तुम्हें लिए ख़ुद में, कुछ कुछ तुम्हारी तरह और ढूंढ रहा हूँ, वो छत, वो गली, वो शहर जहाँ तुम नाच रही होगी।