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सुबह आती ही है...

दिन को रोका गया, छीन ली गई रौशनी की हर किरण शाम आई, रात को लाई रात गहराई.... और देखो, फिर सुबह आ गई... सुबह आती ही है देर से..अंधेर से।

तुम मुस्कुराती हो तो..

सुनो तुम मुस्कुराती हो तो लगता है कि, उम्मीद की दुनियां अब भी ज़िन्दा है.. और अब भी सबकुछ उतना बुरा नहीं हुआ, जितना की ख़बरों में दिखता है... अब भी सूरज को निहारा जा सकता है अब भी पहाड़ों को पुकारा जा सकता है अब भी नदियों में नहाते हुए फोटो खिंचाई जा सकती है वो फोटो जो सिर्फ़ फेसबुक के लिये ना हो, बल्कि एक याद भी हो.... अब भी चिड़ियों के साथ गुनगुनाया जा सकता है अब भी अजनबियों से अपनापन जताया जा सकता है अब भी पड़ोसियों को गले लगा कर बधाईयाँ दी जा सकती हैं बिना किसी शक़ या संकोच के और अब भी छोटी छोटी कोशिशों से किसी रोते हुए चेहरे को, हँसाया जा सकता है... तो सुनो, मुस्कुरा दिया करो ना प्लीज... क्यूंकि इस वक्त मुझे और दुनियां, दोनों को ही, उम्मीदों की बहुत ज़रूरत है।

ख़ामोशी भी बोलती है...

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ख़ामोशी भी बोलती है... सुन पाओगे तुम.... ?? झुकी हुई पलकें.. कांपते हुए होंठ... उखड़ती हुई साँसें... बहती हुई आँखें... ठहरे हुए कदम... दबे हुए से गम... सब बोलते हैं... इन अहसासों के धागों को बुन पाओगे तुम...??? हाँ ..ख़ामोशी भी बोलती है.... सुन पाओगे तुम...???? 

सुबह के वो पल

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बरसाती सुबह... मखमली अहसास... तुम्हारी आवाज़... ज़िन्दगी, कुछ पल ठहर गई हो जैसे।

ME v/s ME

मुझसे बसते 2 'मैं', वैसे ही जैसे बसते हैं सब में आज लड़ बैठे एक दूसरे से, आपस में ही... एक 'मैं', जो दुनियां से ज़रा ज्यादा प्रभावित है, दूसरे से बोला - "अच्छा !! तुम आज भी इश्क़ में यक़ीन करते हो.., भावनाओं में यक़ीन करते हो, सच में यक़ीन करते हो ?? अबे जाओ बे...फिर तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता..." दूसरे 'मैं' ने पहले 'मैं' को अपनी मुहब्बत में डूबी आँखों से देखा और बोला- "ख़ामोश...अगर मैं चला गया..,तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता" वाक़ई...कुछ नहीं हो सकता ।

जल्दी सूरज निकलेगा....

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जल्दी सूरज निकलेगा… मन के भीतर एक धधकता ज्वालामुखी विचारों का, बीच भंवर में कश्ती उलझी, पता नहीं पतवारों का, रोक रहे हैं आशाओं को, अवरोधों के आतंकी मार रहे फुफकारें देखो,अवसादों के विषदंती जीवन पथ के गलियारों में असमंजस का डेरा है नज़र नहीं आने देता कुछ चारों तरफ अँधेरा है पर कितना भी हो सघन अँधेरा, एक किरण से पिघलेगा जल्दी सूरज निकलेगा.... रात भयानक कितनी भी हो, प्रातः का हो जाना तय तम को चीर के किरणों का इस अम्बर पे छा जाना तय ग्रीष्म ऋतू में कितना भी तपना पड़ जाये धरती को पर तपने के बाद धरा पर, बरखा-शीत का आना तय क्षण बदले हैं, दिन बदले हैं, युग भी सदा बदलते हैं  कष्टों के यौवन, जीवन में इक न इक दिन ढलते हैं  कुछ भी स्थिर नहीं यहाँ तो, दुःख का समय भी बदलेगा.... जल्दी सूरज निकलेगा.... 

हम दोनों..

न जाने कब और किस जनम में सीख आये थे, साथ साथ या अलग अलग..,  पता नहीं मगर बड़ी अजीब है ये भाषा... जिसे 'वे' बोलतीं हैं और 'ये' सुन लेता है बिना किसी आवाज़ के...  बिना किसी शब्द के...  बिना किसी इशारे के... बस संवाद होता है  और सब कुछ समझ जाते हैं दोनों... दोनों -  तुम्हारी आँखें...मेरा दिल ।

तन्हाई तड़पाती है.....

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जब भी तन्हा लम्हों में,  तन्हाई  तड़पाती  है  पलकों की बाँहों से निकल तू मुझसे मिलने आती है।  जब जब दिल ने महसूस किया, कि कोई मेरा अपना न रहा  तब तब तू अश्क़ों में लिपटी, मेरा साथ निभाती है।  दूर कहीं सन्नाटे में जब कोई सदा नहीं उठती चुपके से मेरे कानों में, तब तेरी आहट आती है।  हर बार ख़ुशी के उस दिलकश,अहसास से मैं भर जाता हूँ  चंचल मासूम हँसी से जब तू यादों में मुस्काती है।  नामुमकिन है तुझ बिन जीना, फिर भी खुद को समझा लूँ  पर उस धड़कन को क्या बोलूं, तुझ बिन थम सी जाती है।  जब भी तन्हा लम्हों में,  तन्हाई  तड़पाती  है.....

मैं, तुम और बरसात

लो आया गया तुम्हारा मौसम.. इसी का इन्तेज़ार था न तुम्हें ? कड़कड़ाती बिजलियां, गरज़ते बादल, और ये फुहार.... कितना शोर मचाती हो तुम, इस बारिश में बच्चों के साथ जैसे आ जाती है कोई बच्ची, तुम्हारे भी भीतर, कहीं किसी दुनिया से। उछलती हो, कूदती हो, नाचती हो और नचाती हो छत पे बह रहे उस बरसाती पानी को भी अपने ख़ूबसूरत पैरों से क्या छपाक की आवाज़ आती है, जब पानी उछलता है और बिखर जाता है दूर तक उन छोटी छोटी मुस्कुराती बूंदों में। सच, कितनी ख़ुश हो जाती हो तुम... मैं जानता हूँ तुम आज भी खेल रही होगी नाच रही होगी, कहीं किसी छत पे, किसी गली में बच्चों के साथ पानी उछाल रही होगी भीग रही होगी... और मैं...? मैं भी भीग रहा हूँ.., तुम्हें लिए ख़ुद में, कुछ कुछ तुम्हारी तरह और ढूंढ रहा हूँ, वो छत, वो गली, वो शहर जहाँ तुम नाच रही होगी।

बातें हड़ताल पर हैं

बातें हड़ताल पर हैं.. और वो भी इस क़दर कि, नहीं निकलने देना चाहती एक भी शब्द  इस होठ की दहलीज से... कोई इन शब्दों तक ना पहुँच सके इसलिए उन्होंने ख़ुद से ही खोद रखे हैं बहुत सारे गड्ढे.... वो गड्ढे जो उगल रहे हैं आग इन दिनों, पूरे मुंह की सीमाओं से... शब्द बहुत हैं,  निकलना भी चाहते हैं लेकिन जैसे ही करता है कोई शब्द कोशिश आज़ादी की... वो उकसा देती हैं इन गड्ढों को,  और गड्ढों की आग में झुलसा वो शब्द,  ख़ुद ही क़ैद हो जाता है जैसे, झुलसती राह की तकलीफ़ के  उस साये में... बातें मौन चाहती हैं  इस वक्त बस चुप रहना चाहती हैं इक ऐसा मौन...जिसमें छुपा है इंतज़ार... इंतजार तुम्हारे आने का... इस मौन व्रत को रखे हुए ये बातें  अब थक रही हैं.. टूट रही हैं... झुलस रही हैं ख़ुद की ही आग में... तो सुनो... तुम लौट आओ ना... तुम आओगी तो बातें जी उठेंगी।

तो क्या हुआ..

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तो क्या हुआ,  कि इश्क़ में धोखे बहुत मिले तो क्या हुआ, कि ज़िन्दगी ने ठुकरा दिया तुम्हें तो क्या हुआ, कि तुमने जिसको चाहा, मिला नहीं तो क्या हुआ  कि दर्द-ओ-ग़म ने बिखरा दिया तुम्हें तो क्या हुआ, कि मुश्किल में सब छोड़ रहे तुमको तो क्या हुआ, कि अपनों ने ही रुसवा किया तुम्हें तो अब जो हुआ, वो बीत गया जो गुज़र गया, वो गुज़र गया लाख समेटा था तुमने पर बिखर गया तो बिखर गया अब बंद करो सब दरवाज़े जो खींच रहे, जो रोक रहे अब सुनो नहीं उन तानों को जो खड़े राह में टोक रहे निश्चय कर लो, और निकल पड़ो अब और नहीं, अब और नहीं ग़म, तकलीफ़ें, धोखे, आँसू अब और नहीं, अब और नहीं अब करो शुरू फिर नया सफ़र क़तरे क़तरे को पी लो तुम है महज़ ज़िन्दगी एक दफ़ा हर इक लम्हे को जी लो तुम तो ख़त्म करो अब निर्भरता सब कुछ तुम हो, सब तुम में है अब मत ढूंढ़ो रब चेहरों में तुम रब में हो, रब तुम में हैं । #लव_यू_ज़िन्दगी

उदास शामें...

शामों का उदासियों से ये क्या रिश्ता है कि हर शाम डूब ही जाती है आकर, उदासी की नर्म बाहों में... इसी अनजान से रिश्ते के डर से ना जाने कितने लोग...निकलते हैं रोज, किसी भीड़ की तलाश में, जहाँ भूल सकें ख़ुद को, उन चंद उदास घंटों के लिये.... कुछ लोग, जैसे मैं... हाँ मुझे भी सताता है ये डर.. मैं भी डरता हूँ.. और शायद इसीलिये भागता भी हूँ हर शाम, इस उम्मीद से कि कहीं कोई भीड़ छुपा लेगी मुझे भी रात होने तक... लेकिन अफ़सोस... अफ़सोस, वो भीड़ शोर तो करती है... ठहाके भी लगाती है, लेकिन रोक नहीं पाती उन लम्हों की उदासियों को... वो उदास लम्हे, हर रोज गुज़रते हैं.. और हर रोज छलकती हैं ये आँखें, पूछते हुए ये सवाल कि - "शामों का उदासियों से ये जो रिश्ता है, ये रिश्ता ख़त्म क्यों नहीं होता ?" लम्हे ज़वाब नहीं देते....