उदास शामें...
शामों का उदासियों से ये क्या रिश्ता है कि
हर शाम डूब ही जाती है आकर,
उदासी की नर्म बाहों में...
इसी अनजान से रिश्ते के डर से
ना जाने कितने लोग...निकलते हैं रोज,
किसी भीड़ की तलाश में, जहाँ भूल सकें ख़ुद को,
उन चंद उदास घंटों के लिये....
कुछ लोग, जैसे मैं...
हाँ मुझे भी सताता है ये डर..
मैं भी डरता हूँ..
और शायद इसीलिये भागता भी हूँ हर शाम, इस उम्मीद से
कि कहीं कोई भीड़ छुपा लेगी मुझे भी रात होने तक...
लेकिन अफ़सोस...
अफ़सोस, वो भीड़ शोर तो करती है...
ठहाके भी लगाती है,
लेकिन रोक नहीं पाती उन लम्हों की उदासियों को...
वो उदास लम्हे, हर रोज गुज़रते हैं..
और हर रोज छलकती हैं ये आँखें,
पूछते हुए ये सवाल कि -
"शामों का उदासियों से ये जो रिश्ता है,
ये रिश्ता ख़त्म क्यों नहीं होता ?"
लम्हे ज़वाब नहीं देते....
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