छलकन ……  
दो या ढाई ही रहे होंगे..
फिर भी कहाँ संभले....
प्रहार करता वक्त ..
आहत होती भावनाएं ..
नियंत्रण रहित मस्तिष्क..
आवेशित ह्रदय. ..

सहनशक्ति ही तो थी 
कब तक सहती....
टूट गयी.....

और छलक पड़ीं आँखें..
दर्द के उन चंद टुकड़ों के साथ,
जो संख्या में तो कुछ भी न थे..
पर वजन में बहुत ज्यादा थे...

- जितेंद्र परमार 

Comments

Popular posts from this blog

The Bonding

This Time 'Mind', not 'Heart'

Healthy Diet - Honey Diet