थोड़ी पागल...
थोड़ी पागल, थोड़ी जिद्दी , थोड़ी मस्त हवा सी है
आँखों से सब कुछ कहती है, होंठों से शर्माती है।
उसे समझना नामुमकिन है, फिर भी मैंने कोशिश की
समझ के भी लगता है लेकिन अभी समझना बाकी है।
हुस्न परी, चितचोर राधिका , सौम्य , सुलोचन, मृगनयनी
रूप के सारे रंग समेटे, सुन्दर किसी बला सी है।
पाक, पवित्र, सादगी जिसके तन और मन की शोभा है
इस भौतिक युग में भी जैसे अभौतिकतावादी है।
कितने सहज सरल ढंग से हल, कर देती है हर मुश्किल
छोटी नन्ही बातों में जीवन के सार सिखाती है।
जिसके आगे टिके न क्षण भर, शंकित मन का अँधियारा
नव प्रभात के रंग दिखाती शुभ कि प्रथम विभा सी है।
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