ज़ख्म किसे दिखलाऊं मैं...

सांच-झूठ-अंतर कैसे, अन्तर्मन  को  समझाऊँ  मैं 
इस विरहाघात को सहने का सामर्थ्य कहाँ से लाऊं मैं ?

कुछ कहते हैं  तेरी थी, कुछ कहते गलती  मेरी थी 
मान भी लूं गर गलती थी तो किसको गलत बताऊँ मैं ? 

इश्क़ फ़लक पर जिसके दम पे मैंने उड़ना सीखा था 
उसने ही पर काट दिए तो, ज़ख्म किसे दिखलाऊं मैं ?

गैर तो फिर भी गैर ही थे, अपने भी क्या कम उनसे 
किसका किसका दिल  झाँकू, किस किस पे दोष लगाऊं मैं ?

जाने कब से इकतरफा है, जाने कब से दबा हुआ
इस रिश्ते में कितना तड़पूँ, कितना भला निभाऊँ मैं ?

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