ज़ख्म किसे दिखलाऊं मैं...
सांच-झूठ-अंतर कैसे, अन्तर्मन को समझाऊँ मैं
इस विरहाघात को सहने का सामर्थ्य कहाँ से लाऊं मैं ?
कुछ कहते हैं तेरी थी, कुछ कहते गलती मेरी थी
मान भी लूं गर गलती थी तो किसको गलत बताऊँ मैं ?
उसने ही पर काट दिए तो, ज़ख्म किसे दिखलाऊं मैं ?
गैर तो फिर भी गैर ही थे, अपने भी क्या कम उनसे
किसका किसका दिल झाँकू, किस किस पे दोष लगाऊं मैं ?
जाने कब से इकतरफा है, जाने कब से दबा हुआ
इस रिश्ते में कितना तड़पूँ, कितना भला निभाऊँ मैं ?
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